बंटवारा प्रेम का
राजशेखर व मालती अपने भरे-पूरे परिवार के साथ रह रहे थे। शादी के दो साल बीत चुके थे। मालती मां बनने वाली थी।
दोनों परिवारों में रौनक छा गई। बच्चे के आने की जितनी तैयारी उसके दादा-दादी कर रहे थे, उतनी ही नाना-नानी भी।
जब बच्चा अपनी मां के पेट में था, तब से ही राजशेखर को तो मालती के लिए कुछ भी सोचना भी नहीं पड़ता था, क्योंकि सब उसका बहुत ध्यान रखते थे। दोनों ही घरों से मालती के लिए खूब फल, दूध, मेवा मिठाई, सबकी भरमार थी।
जब मालती को इतना लाड़ प्यार मिलता था, तो अड़ोसी-पड़ोसी सभी यही कहा करते थे, जरुर से इन लोगों ने पता कर लिया है कि बेटा होने वाला है। तभी सब तिमारदारी में पागल हुए जा रहे हैं।
बाकी इतना भी क्या बांवरा होना कि बहू को सिर पर चढ़ लो, ऐसा भी कौन सा बिरला काम कर रही है। सारी बहुएं ही, अपने सास-ससुर को वारिस देती हैं।
सास, मालती पर वारी जाती और कहतीं, तुम सब जलनखोर हो। जब बहू, वारिस दे रही हो, तब तो सबसे ज्यादा बहू का ध्यान रखना ही चाहिए।
एक तो इसलिए कि बहू की कोख में हमारे खानदान का भविष्य होता है, दूसरा उस भविष्य को संवारने के लिए मां का स्वस्थ रहना भी जरूरी होता है।
कोई मालती की माँ से कहता, आप क्यों बांवरी हुई जा रही हैं, कौन आपके खानदान का वारिस आ रहा है तो मालती की माँ, गुस्से से आग-बबूला होती हुई कहती कि, जब बेटी मेरी हैं, तो उसका बच्चा पराया कैसे हो गया, भला...
इन ही सब में नौ महीने कब निकल गए, पता ही नहीं चला और वो दिन आ गया, जिसका सबको बेसब्री से इंतजार था।
दोनों ही परिवार, एक ही शहर में थे, अतः जब मालती अस्पताल में पहुंचीं तो दोनों ही तरफ से सब पहुंचे हुए थे।
सबको पहले से आया देखकर, मालती और राजशेखर प्रसन्न हो गए।
बच्चे के रूदन की आवाज सुनाई दी तो, सब एक दूसरे को बधाई देने लगे। जब नर्स बच्चे को लेकर सबके सामने पहुंची तो....
आगे पढ़े, बंटवारा प्रेम का (भाग - 2)
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