ये पूरी दुनिया की त्रासदी है, कि कंगूरों की ईंट तो सबको दिखती है, पर जिसकी वजह से उसकी ख़ूबसूरती है, उस नींव की ईंट को, कोई देखता तो क्या कोई उसके बारे में सोचता, पूछता तक नहीं है।
यही हाल उन मेहनतकश लोगों का भी है, जिन्होंने मेहनत तो भरपूर की, पर उसका श्रेय उन्हें कभी नहीं मिला।
मेरी आज की ये poem Labuor Day में उन सबको समर्पित है, जिन्हें अपनी मेहनत के लिए वो प्रसिद्धि नहीं मिली, जिसके वो हक़दार थे।
हम मेहनतकश मजदूर
ताज की हसीन इमारत
देखी सबने
पर मेहनत किसकी है
क्या सोचा है?
शाहजहाँ की तारीफ
की सबने
नाम हमारा भी
किसी ने पूछा है?
क्या पाया हमने?
क्या पाते हैं?
हम मेहनतकश मजदूर
बस गुमनामी
में खो जाते हैं
चंद पैसों की खातिर
जिसका प्रेम प्रतीक
बना दिया
उस दरिन्दे ने
हमारे हाथ कटा
हमको अपाहिज
बना दिया
क्या पाया हमने?
क्या पाते हैं?
हम मेहनतकश मजदूर
बस गुमनामी
में खो जाते हैं
हैं सृष्टि के
निर्माता हम
हर एक इमारत
बनाते हैं
पर हमारे पास ही
छत नहीं
हम आसमां के
नीचे ही
सो जाते हैं
क्या पाया हमने?
क्या पाते हैं?
हम मेहनतकश मजदूर
बस गुमनामी
में खो जाते हैं
बच्चे हमारे भूखे सोते
चिथड़े कपड़े पहने होते
सब सुख सुविधा को
रोते रहते हैं
क्या पाया हमने?
क्या पाते हैं?
हम मेहनतकश मजदूर
बस गुमनामी
में खो जाते हैं
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