शोर
रुपल, क्या कर रहे हो बेटा?
माँ, क्रिकेट खेल रहा हूं।
आय हाय! बड़ी मुश्किल से नींबू का अचार डाला है, बरनी कहीं फूट ना जाए...
रिशिता, देखो ना, वहां से बरनी उठा लाओ, वरना आज अचार डाला है और आज ही मिट्टी में मिल जाएगा...
माँ, वो खेल रहा है ना, उसी से बोल दीजिए...
अरे मेरी रानी बिटिया! उसके गंदे हाथ हैं, उससे कैसे उठवा लूं बरनी? तू ही जा ना ...
क्या माँ! आप हमेशा यही करती हैं... रिशिता भुनभुनाती हुई जाने लगी...
झनाक!...
हाय रे! तोड़ डाला रे... रुपल, तू कब सुधरेगा? सब बर्बाद कर दिया, मेरी मेहनत का तो तूने कभी मोल समझा नहीं, फिर कितनी मुश्किलों से रामू काका ने, गांव से कागज़ी नींबू मंगाएं थे, उनका ही मोल समझ लेता...
माँ, बड़बड़ाती रही, पर रुपल पर इस का लेश मात्र भी असर नहीं पड़ा।
हर दूसरे दिन माँ बच्चों पर चिल्लाती रहतीं, कभी चादर बर्बाद करने के लिए, कभी पर्दा पकड़कर झूलने के लिए, कभी टूट-फूट के लिए, कभी पूरे घर को अस्त-व्यस्त करने के लिए तो कभी धमा-चौकड़ी और आपसी लड़ाई के लिए...
माँ का कहना- चिल्लाना, बच्चों पर क्षण भर ही असर डालता, और फिर थोड़ी देर बाद वही, बच्चों की मस्ती और मां की रोक-टोक....
बस ऐसे ही दिन कट रहे थे।
रिशिता के 11th में आने से बच्चों के झगड़े थोड़े कम हो गए थे, क्योंकि रिशिता को पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं थी।फिर उसका engineering में selection हो गया और वो दूसरे शहर चली गई।
रिशिता के जाने और रुपल के 11th में आ जाने से झगड़े तो पूरे ही बंद हो गए, पर चादर बर्बाद करना, कमरा अस्त-व्यस्त होना अभी भी बरकरार था और माँ का टोकना भी...
पर रुपल के भी engineering में selection के बाद तो घर में जैसे जान ही नहीं बची।
चादर, पर्दे, कमरा, सब व्यवस्थित, ना कोई शोर-शराबा, ना कोई टूट-फूट, ना मां का कहना- चिल्लाना, सब एकदम शांत या यूं कहें वीरान हो गया था सब कुछ...
सब व्यवस्थित था, नहीं था तो, बस माँ का मन..
उसके कान अब बच्चों का शोर सुनने को तरस जाते थे...
बच्चों को थोड़ा धमा-चौकड़ी और शोर भी मचाने देना चाहिए, क्योंकि यही ज़िंदगी है, यही यादें...
एक बार, यह पल गुज़र जाते हैं तो जिंदगी में वीराना ही रह जाता है।
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